अँधेरी रात है, और हमारी आँखों में नशा है, बेहोशी है, नींद है, हमें कुछ दिखाई देगा ही नहीं। जब कुछ दिखाई देगा ही नहीं तो हमें ये कौन जताएगा कि हम नर्क में हैं?
इस प्रकार का रूपांतर दूसरे शब्दों में भी होता है। जैसे- बादल, बादर, बदरा,
कह रहा है, "ये उतर गई तो मेरी खाल उतर जाएगी।" ‘कै’ और ‘मैं’ चिपक कर एक हो जा रहे हैं। गड़बड़ हो गई न। जबकि बात ये है अगर टीशर्ट उतरेगी तो दिक़्क़त उतरेगी, बदबू उतरेगी।
आचार्य: देखिए, जो शब्द है न छोड़ना, इसका कम-से-कम इस्तेमाल करें।
दुनियादारी की कोई चीज़ चाहिए?” तो कहेगा, “नहीं, सोने दो बस। हम जैसे हैं, ठीक हैं। कहाँ है हमारा वो फटा-पुराना गद्दा और मैली चादर? लाओ उसी पर सो जाएँ।”
आचार्य: क्योंकि वो गोलू है। उसने अपने-आपको ये बोल दिया है न ‘मैं हूँ'। उसने अपने-आपको एक झूठा नाम दे दिया है कि ‘मैं हूँ'। वो ‘मैं’ ‘मैं’ है ही नहीं, पर वो अपने-आपको क्या बोलता है? ‘मैं’। अब अगर वो मिट गया तो कौन मिट जाएगा?
में खेला जाता रहा है। इसके प्रति लोगों का आकर्षण और रुचि कभी कम नहीं हुई। हॉकी
प्र: क्या अहम् शरीर के संरक्षण के लिए आवश्यक है?
राजसिक आदमी स्वर्ग खोज रहा है संसार में, वो संसार में चारों तरफ़ भटका-भटका फिर रहा है। सात्विक मन अपने भीतर प्रवेश कर जाता है। वो खोजने लग जाता है अपने भीतर कि इस दौड़ का कारण क्या है, कौन है जो दौड़ रहा है। वो साधना में लग जाता है। उसकी पहचान ये है कि वो दुनिया से अपेक्षाएँ और उम्मीदें रखना छोड़ देता है। वो साफ़ समझ जाता है कि उसे जो चाहिए, वो दुनिया में तो नहीं मिलेगा। वो कहता है, “मुझे जो चाहिए, वो भीतर ही कहीं मिलेगा।” ये सात्विकता हुई।
आप आपसे बहुत ज़्यादा बड़े हैं। आप अहंकार भी हैं, आत्मा भी हैं। अहंकार इत्तु! (उंगलियों द्वारा छोटा सा आकार बताते हुए) आत्मा…!
कुछ भी यूँही जाकर के इष्टदेव से, भगवान से मांगने लग जाना, प्रार्थना नहीं कहलाता। प्रार्थना करने के लिए पात्रता चाहिए। पात्रता ये कि सर्वप्रथम अपने दम पर जो मैं अधिकतम कर सकता था, वो मैंने करा। और झूठ नहीं बोल रहा हूँ, जान लगा दी है पूरी, इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कर पा रहा। पूरी अपनी जान लगा दी है, सही दिशा में लगा दी है, अब थक रहा हूँ — ये स्वीकार करना ही प्रार्थना है।
समाज में कई ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब प्रसिद्ध व्यक्तियों को गरीबी और मुफलिसी
दूसरा आपने प्रार्थना के विषय में कुछ पूछा। देखिए, प्रार्थना अहंकार की विनम्रता की स्वीकृति होती है। 'मैं विनम्रतापूर्वक check here अपनी सीमाएँ स्वीकारता हूँ। मैं वहाँ पर आ गया हूँ जहाँ मेरा अपना सामर्थ्य पर्याप्त नहीं होगा आगे बढ़ने को' – ये प्रार्थना है। आगे तो जाना है पर आपने बूते अब जाया नहीं जा रहा। इसी से आप ये भी समझ गये होंगे कि सच्ची प्रार्थना क्या है।
ये वो नहीं बता पाएगा। ये राजसिक मन है। ये दौड़ता तो ख़ूब है, भागता तो ख़ूब है, पहुँचता कहीं नहीं। पर तामसिक मन से ये फिर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें इतनी तो ईमानदारी है कि ये मानता है कि ये नर्क में फँस सकता है और इसे नर्क से बचना है। तामसिक मन तो ये भी नहीं मानता कि वो नर्क में फँसा हुआ है। तामसिक मन ने तो नर्क को ही स्वर्ग का नाम दे रखा है। तो इसीलिए शास्त्रों ने राजसिक होने को तामसिक होने से बेहतर बताया है।
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